ओ सजना बरखा बहार आयी रस की फुहार लाई …
चैत, बैसाख और जेठ. वर्ष के सबसे गरम और लम्बे दिन. तपती हुई फटी सी धरती. सूखे पोखर, ताल और तलैयां. हाँफते हुए पक्षी और जानवर. लम्बी सुनसान पग डंडियाँ और सड़कें. ये सब बीत गया सा लगता है. अब बरखा ऋतू का आगमन हो रहा है. पेड़,पौधे,पशु,पक्षी और स्त्री पुरुष सभी इनके स्वागत को तत्पर बैठें हैं.
बड़े इंतज़ार के बाद ये देवीजी, अपने पूरे साज़ श्रृंगार के साथ, इठलाती, मटकती अपने एक हाथ से अपनी लम्भी घनी और काली चोटी घुमाते हुए हुई येहाँ आ पहुंची हैं. धीमे धीमे ये देश के अधिकतर हिस्सों में अपना आँचल फैला लेंगी. पहले मंद मंद फिर घनघोर हवाएं चलेंगी और उनके साथ आयेंगे उमड़ते घुमड़ते बादल, धुआं धार बूँदें पड़ेंगी, धरती की प्यास बुझेगी. सारे पर्वत, विशेषकर पश्चिमी और पूर्वी घाट-अरावली-निलगिरी-शिवालिक-सतपुरा -विन्ध्याचल और हिमालय, जो वैसे ही अत्यंत सुन्दर हैं और जहाँ तहां जंगलों से ढके हैं, और भी सुंदर हो जायेंगे. उत्तर पूर्वी भारत के मैदान और घाटियाँ में लगेगा जैसे किसीने गहरे हरे रंग की स्याही बिखेर दी हो. सूखे बंजर पहाड़ों पर छोटी बड़ी जल धाराएं और झरने फूटेंगे. नदी,नाले सब उफ्नेंगे. समुन्द्र में ऊंची ऊंची लहरें उठेंगी. नए अंकुर फूटेंगे और साथ ही नए जीवन की शुरुवात होगी. केंचुए, मेढक, झींगुर, रेंगने वाले और प्राणी, जो अब तक ज़मीन के अन्दर छिपे बैठे थे, बाहर निकलेंगे. वातावरण उनकी और उनके साथ और बहुत से पक्षिओं की आवाजों से संगीतमय हो जाएगा. आकाश में विहंग दल उड़ते दिखाई देंगे. झीलों के नजदीक बगुले और सारस फिर लौटेंगे रास लीला करने. उन्हें देख युवक युवतीयां भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं, झुरमुट और पेड़ों से ढकी बेचों पर उनकी भी प्रेम लीला चलेगी. जनम जन्मान्तर से ये होता आया है.
हवा के पंखों पर सवार मल्हार, कजरी और लोक गीतों की स्वर लहिरियां सुनायी देने लगेंगी. नए गीत बनेंगे और नया साहित्य रचा जाएगा. सब कुछ कोलाहल मय, रोमांचित और रोमांस मय लगने लगेगा. एक पल को आँख बन्द कर कल्पना करें तो ऐसा लगेगा मानो बादलों से आच्छादित आसमान के नीचे एक लम्बी नदी पर नाव चलाता एक मांझी किसी लोक गीत को गुनगुनाता चला जा रहा हो – बहुत खुश है, नदी पार कर अपनी प्रेयसी से जो मिलेगा.
वैसे तो सारी दुनियां में पर विशेषकर भारत में वर्षा ऋतू का बहुत महत्व है. येहाँ वर्षा केवल ऋतू नहीं है बल्कि इसे एक उत्सव की तरह मनाया जाता है. गाना-बजाना, ढोल-नगाड़े, लोक नृत्य, लोक गीत, राग मल्हार-कजरी और बहुत से राग इसी वर्षा ऋतू की देन हैं. भारत में जितना साहित्य लिखा गया वो ग्रीष्म और शीत ऋतू पर बहुत कम है पर वर्षा ऋतू पर सबसे ज्यादा. प्राचीन काल से ही इसका वर्णन हमारे साहित्य में मिलता है. फिर चाहे वो महाभारत हो, रामायण हो, कालिदास द्वारा रचित मेघदूत हो या अन्य कोई रचना, पिछली शताब्दी में रचित साहित्य हो या आधुनिक साहित्य. येहाँ तक की वो आज भी लिखा जा रहा है.
मेघदूत की बात करें तो सहसा मन स्वर्गीय श्रीयुत नागार्जुन द्वारा अनुदित काव्य पर खिचा चला जाता है. इस तरह के साहित्य का सृजन न तो कभी पहले हुआ न होने की संभावना है. पर हमारे मन और हृदय में पावस ऋतू इतनी रमी हुई है की आज भी किसी न किसी रूप में उसका वर्णन हो रहा है. फिर वो चाहे भारतीय फिल्मे ही क्यूँ न हों. बात फिल्मों की हो और राजकपूर की बरसात की न हो ऐसा हो ही नहीं सकता. १९४४ में आयी ये फिल्म और उसका गाना “बरसात में हम से मिले तुम ओ सजन हम से मिले तुम ” और “प्यार हुआ इकरार हुआ” आज भी उतने ही मशहूर हैं. बिमल रॉय की फिल्म परख का गाना ” ओ सजना बरखा बहार आयी रस की फुहार लाई” अन्दर तक छु जाता है. कुछ और फ़िल्मी गीत जिनमे बरसात का ज़िक्र है मुझे याद आ रहे हैं और जो शायद सबने सुने होंगे “”ठंडी ठंडी सावन की फुहार” ,”रिमझिम के तराने ले के आई बरसात” ,”काली घटा छाए मेरा जिया तरसाये” ,”गरजत बरसत सावन आये रे” व ”ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी बरसात की रात”,”एक लड़की भीगी भागी-सी” ,”छाई बरखा बहार पड़े अंगना फुहार पिया आ के गले लग जा”, ”उमड़ घुमड़ घिर आई रे घटा” , ”जारे कारे बदरा बलम के द्वार” ,”धरती कहे पुकार के”, ”छाई बरखा बहार” ,”सावन का महीना पवन करे शोर”, ”रिमझिम के गीत सावन गाए भीगी भीगी रातों में” ,”छुप गये सारे नज़ारे ओए क्या बात हो गई”, ”कुछ कहता है ये सावन” , ”बदरा छाए झूले पड़ गए हाए” ,”मेघा छाये आधी रात बैरन बन गई निंदिया”, ”अल्लाह मेघ दे पानी दे छाया दे”, ”काली घटा छाये मोरा जिया तरसाये”,”रिमझिम गिरे सावन”, ”सावन के झूले पड़े”, ”भीगी भीगी रातों में”,”बादल यों गरजता है डर कुछ ऐसा लगता है”, ”रिमझिम रिमझिम रूमझुम रूमझुम”, ”पानी रे पानी तेरा रंग कैसा”, ”लगी आज सावन की फ़िर वो झड़ी है” , ”मेरे ख्वाबों में जो आए”, ”घोड़े जैसी चाल हाथी जैसी दुम ओ सावन राजा कहाँ से आए तुम” ,”आज रपट जायें”. और भी हज़ारों गीत हैं, कवितायें हैं जिनमे बरसात या सावन की खुसबू बसी हुई है… कुछ लोक गीत भी मुझे अब याद आ रहे हैं पर उनका ज़िक्र फिर कभी.
अभी बरसात का आनंद लें….गरमा गर्म चाय और पकोड़ों के साथ…